क्या जेल तक संविधान की पहुंच भी मुश्किल है
हेमंत नाहटा, अधिवक्ता राजस्थान उच्च न्यायालय
सभी संवैधानिक अधिकारों में सर्वोच्च अनुच्छेद- 21 प्रत्येक नागरिक का गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार सुरक्षित रखने का दायित्व सभी सरकारी एजेंसियों पर डालता है। शीला बरसे केस में सुप्रीम कोर्ट के अनुसार त्वरित विचारण का अधिकार भी अनुच्छेद-21 प्रदत्त अधिकारों में से एक है और विचारण में होने वाली देरी विचारण को ही समाप्त कर देने का पर्याप्त आधार है। न्याय व्यवस्था का यह मूलभूत आधार है कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दोष है, जब तक उसे दोषी करार नहीं दे दिया जाए। वास्तविकता यह है कि विचारण में लगने वाला समय इतना लम्बा हो जाता है कि जब तक निर्दोष घोषित होने का निर्णय आता है, तब तक आरोपी एक लम्बा समय जेल में काट चुका होता है। इस वजह से उसका निजी व्यक्तित्व और सामाजिक अस्तित्व दोषी व्यक्ति के रूप में बुरी तरह से प्रभावित हो चुका होता है, जिससे वह जीवन भर उबर नहीं पाता।
अंधाधुंध गिरफ्तारियां, यांत्रिक तरीके से दिए जाने वाले रिमांड, जमानत याचिका एवं ट्रायल के निपटान में संस्थागत देरी के दुष्चक्र में भारतीय जेलें बंदियों से बाड़ों की तरह भरी पड़ी हैं। वर्ष 2019 में जेलों में 4.78 लाख कैदी बंद थे, जिनमें से 3.30 लाख तो विचाराधीन कैदी ही थे। इसी प्रकार जुलाई 2021 में देश के विभिन्न हाईकोर्ट में 58 लाख से अधिक तथा अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष 3.90 करोड़ से अधिक केस विचाराधीन चल रहे हैं। विचारण के नाम पर जेलों में बंद आरोपियों को कुछ राहत देने के लिए सीआरपीसी में धारा 436-ए जोड़ी गई। इस धारा के अनुसार मृत्युदंड के अतिरिक्त दी जा सकने वाली अधिकतम सजा की आधी समयावधि जेल में काट लिए जाने की स्थिति में आरोपी को बॉन्ड या जमानत पर रिहा किया जा सकता है। मगर आजन्म कारावास से दंडनीय अपराधों के विचारण में यह समयावधि भारत सरकार की गाइडलाइन के अनुसार 10 वर्ष है। यह गाइडलाइन जारी किया जाना साबित करता है कि देश की जेलों में दस साल से विचाराधीन कैदी भी बंद हैं। जेल में बंद आरोपी को बचाव साक्ष्य एकत्रित करने या ट्रायल में उसका बचाव करने के लिए वकील के पास जाने का कोई मौका नहीं मिलता। नगण्य संख्या में ही वकील जेल में आरोपी से मिल कर बचाव की तैयारी कर पाते हैं। विचारण के नाम पर बरसों तक जेलों में सिसकती जिंदगियां और वहां हो रहे मौलिक तथा मानवाधिकारों के हनन की असंवैधानिक स्थिति एक सर्वस्वीकार्य घटना बन चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक दिन भी जेल में बंद किया जाना बहुत लम्बा समय है तथा फैसले से पूर्व की जेल अवधि इतनी लम्बी नहीं हो सकती कि वह दंड के समान ही बन जाए। समयबद्ध न्याय करना मानवाधिकारों का ही एक भाग है, जिसका उल्लंघन न्याय व्यवस्था से भरोसा उठा देने में सक्षम है। गरीबी, अशिक्षा और संसाधनों की मार झेल रहे लाखों बंदियों के क्रंदन की साक्षी जेलों में संविधान जैसे बेमानी सिद्ध हो रहा है। अंतुले प्रकरण के अनुसार अभियोजन को उत्पीडऩ नहीं बनाया जाना चाहिए। राजस्थान उच्च न्यायालय के जस्टिस के. एस. अहलूवालिया ने कार्यकाल के अंतिम दिन अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कहा कि अधीनस्थ न्यायालय जैसे जमानत खारिज करने और आरोपी को दोषी करार दे देने की 'सुरक्षित' मानसिकता ही अपनाए हुए हैं। त्वरित न्याय देने में राज्यतंत्र की विफलता की कीमत बंदी और उसके परिजन चुका रहे हैं। लम्बे विचारण के बाद निर्दोष करार दिए गए व्यक्ति की वैयक्तिगत स्वतंत्रता और उसके व्यक्तित्व को कारित की गई घोर क्षति का कोई हर्जाना उसे अवश्य ही दिया जाना चाहिए। 'ट्रायल में देरी' की विकराल समस्या के सभी पहलुओं का एक आपात एवं विस्तृत कार्य योजना बना कर समाधान करना अब अनिवार्य हो चुका है।