निजी स्कूलों को सरकारी मदद की दरकार
कृष्ण कुमार, (शिक्षाविद्, एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके हैं)
'प्राइवेट स्कूल' सुनते ही हमारे मन में एक ऐसे स्कूल की कल्पना जागती है, जो सभी सुविधाओं से लैस है और जहां समाज के अपेक्षाकृत धनी वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। यह पूरा सच नहीं है। यदि पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में हुए परिवर्तन पर गौर करें, तो हमें देश में ऐसे लाखों स्कूल मिलेंगे, जहां निम्न मध्यम वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। कई ऐसे बच्चे भी इन स्कूलों में भेजे जाते हैं, जिनके माता-पिता की आमदनी बहुत कम है। इसी आमदनी में से कुछ पैसे बचा कर वे अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं। ऐसे अधिकतर स्कूल बच्चों से मिली हुई फीस से ही चलते हैं। यदि यह फीस मिलनी बंद हो जाए, तो ये स्कूल चल नहीं सकते। महामारी के कारण कुछ ऐसे ही हालात पैदा हुए हैं।
पिछले साल ही स्पष्ट होने लगा था कि कोरोना महामारी में बच्चों का वर्तमान और भविष्य दोनों ही गहराई से प्रभावित होंगे। इस प्रभाव को जांचने का कोई विशेष प्रयास अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है और राज्यों से खबरें आने लगी हैं कि बहुत से बच्चों का इस साल की छुट्टियों के बाद स्कूल मेें पुन: नामांकन नहीं हुआ है। हरियाणा सरकार ने यह जानकारी दी है कि करीब साढ़े बारह लाख बच्चे इन प्राइवेट स्कूलों से दूर हो गए। ये बच्चे कहां गए? जाहिर है कि इन बच्चों के माता-पिता कोरोना महामारी के दौरान अपनी आमदनी को बनाए रखने में असमर्थ थे और वे प्राइवेट स्कूल की फीस देने नहीं दे पाए।
अगर सरकारी स्कूलों में इन बच्चों को प्रवेश दिया जाता है, तो सरकारी स्कूलों को अपना ढांचा फैलाना होगा। वैसे ही सरकारी स्कूलों में कमरों की और अध्यापकों की समस्या बनी रहती है। अध्यापकों की नियुक्ति कई वर्षों से लगातार प्रभावित होती रही है। समस्या इतनी आसानी से सुलझने वाली नहीं है, क्योंकि कुछ सर्वेक्षण दिखाते हैं कि कोरोना महामारी से प्रभावित लाखों बच्चे काम में व्यस्त हो गए हैं और कई लड़कियों की शादी हो गई है। कई अभिभावकों ने बच्चों को खेती-बाड़ी के काम में भी लगा दिया है। आशय यह है कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत और शिक्षा के अधिकार कानून के क्रियान्वयन से जो प्रगति स्कूलों में बच्चों की भर्ती और उनको स्कूलों में बनाए रखने के क्षेत्र में हुई थी, उसको पिछले डेढ़ साल में काफी धक्का पहुंचा है।
यदि सिर्फ साक्षरता की दृष्टि से शिक्षा को देखें, तो भी स्पष्ट है कि आने वाले वर्षों में देश में निरक्षर बच्चों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी। यह देश और समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति होगी, क्योंकि हरियाणा जैसे अनेक राज्यों में बहुत लंबे और कठिन प्रयास से बच्चों का कक्षा एक में दाखिला सौ प्रतिशत छूने लगा था और आगे की कक्षाओं में स्कूल छोडऩे वालों की संख्या भी घटने लगी थी। यह बहुत बड़ी सामाजिक परिघटना थी और इसी के कारण ही यह संभव हुआ था कि शिक्षा के अधिकार कानून को एक सामाजिक यथार्थ में बदलने की संभावना पूरे देश में दिखने लगी थी। यह संभावना आज धूमिल पड़ती हुई दिख रही है, जो वाकई चिंताजनक है। जिस स्थिति से हमारा देश गुजर रहा है, उस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो लाखों बच्चों की शिक्षा कई वर्षों के लिए बाधित रहेगी। उनकी जिंदगी में इसका प्रभाव बहुत लंबे समय तक रहेगा। अंतत: उसका प्रभाव देश पर पड़ेगा।
देश के निम्न वर्ग के बच्चों की शिक्षा में मददगार बने ये लाखों प्राइवेट स्कूल आज बंद हैं। इनको भी सरकार वित्तीय निवेश करके खोलने की व्यवस्था करे, तो बेहतर होगा। निश्चित रूप से प्राइवेट स्कूलों को सरकारी मदद का सुझाव कुछ लोगों को विरोधाभासी लग सकता है, लेकिन यह नई बात नहीं है। आखिर स्कूलों को अनुदान देने का सिलसिला बहुत पुराना है और पूरी तरह बच्चों की फीस पर चलने वाले स्कूल नए हैं।